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अम्मान इतिहास

पौराणिक शास्त्रों के अनुसार, उस युग में तारिकासुरन, एक असुर कहें या राक्षस, ने एक कठोर तपस्या की जहाँ उसने भगवान ब्रम्हा की आराधना करते हुए इस तपस्या का पालन किया । भगवान ब्रम्हा इस तपस्या से अत्यंत प्रसन्न हुए और उस राक्षस के सामने प्रकट होते हुए उन्होंने उस असुर से कहा के मांगों तुम क्या मांगना चाहते हो, जिसपर तारिकासुरन ने ब्रम्हा से कहा की इस पूरे ब्रह्मांड में कोई उसका वध न कर पाए ।

जिसपर भगवान ब्रम्हा ने असुर से कहा की जहाँ जन्म होता है वहां मृत्यु का होना भी पूर्ण स्वाभाविक है । जिसके पश्चात राक्षस को कोई और वरदान मांगना होगा। ब्रम्हा की इस बात पर कुछ देर विचार करते हुए राक्षस ने कहा कि ठीक है इस स्थिति में उसका वध एक ऐसी बालिका ही कर सकती है जो की सोलह वर्ष की होगी और जिसने कभी भी किसी पुरुष की शक्ल नहीं देखी होगी। भगवान ब्रम्हा ने राक्षस को यह उचित वरदान दे दिया ।

हाथों हाथ, तारिकासुरन सभी लोगों पर इस बात का ज़ोर देने लगे के इस पूरे ब्रह्मांड में हर व्यक्ति को भगवान शिव की आराधना करना बंद करना होगा जिसके पश्चात सभी लोग सिर्फ़ तारिकासुरन की ही पूजा करेंगे। और अपनी यह बात मनवाने के लिए राक्षस सभी को परेशान करने लगा। इस निर्दयता को देखकर सभी देव भगवान विष्णु एवं भगवान ब्रम्हा के पास गुहार लगाते हुए पहुंचे जिसपर भगवान विष्णु ने तारिकासुरन को दिए गए वरदान के बारे में अवगत करते हुए सभी को यह बताया के राक्षस का वध सिर्फ़ एक बालिका कर सकती है जो की सोलह वर्ष की होगी और जिसने कभी भी किसी पुरुष की शक्ल नहीं देखी होगी।

फिर, भगवान विष्णु ने देवी पार्वती को बुलाते हुए यह कहा की देवी को एक ऐसे विश्व में जन्म लेना होगा जहाँ वे कुरिंजी के जंगलों में ब्रम्हा की गोद ली हुई पुत्री होंगी और जहाँ वे 16 वर्ष की आयु तक रहेंगी। इसका मुख्य कारण यह था के कुरिंजी के जंगलों में पुरुषों की उपस्थिति बिलकुल नहीं थी।

इन्हीं 16 वर्ष के अंतराल के बाद सभी देव एकत्रित होकर भगवान शिव के दरबार पहुंचे जहां उन सभी ने मध्यरात्रि तक शिव-पार्वती के विवाह की सूचना देते हुए भगवान शिव को कुरिंजी के जंगल भेज दिया। इस दौरान, राक्षस तारिकासुरन के दुष्कर्म तेज़ गति से बढते गए और इन्हीं प्रताड़नाओं से पिड़ित होकर एक दिन ऋषि और देवों ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की जिसपर भगवान विष्णु ने उन सभी को आश्वास्ति किया के कुरिंजी के जंगलों में देवी पार्वती के जन्म को 16 वर्ष हो चुके हैं जिसके उपरांत सभी देवों को शिव-पार्वती के विवाह की शीघ्र तैयारी करनी होगी। इसके अनुसार सभी देव शिव जी को पार्वती से विवाह करने हेतु उनके पास ले गए।

साधु नारद जो की कुछ हद तक दुष्ट कर्म के लिए जाने जाते हैं, और उन हरकतों के परिणाम सदैव अच्छे ही निकले, उन्होंने यह देख लिया। वे शीघ्र ही राक्षस तारिकासुरन के पास गए और उन्होंने उसे विवाह संबंधित सारा व्याख्यान दे दिया।

यह सूचना मिलते ही तारिकासुरन बेहद क्रोधित हुआ और अपने क्रोध पर नियंत्रण न रख पाते हुए उसने यह निर्णय लिया की वह शीघ्र ही जाकर देवी पार्वती को अपने वश में करके उनसे विवाह कर लेगा इससे पहले कि भगवान शिव और अन्य देव कुरिंजी के जंगलों में पहुंचे।

बस वही दिन था जिस दिन पार्वती देवी ने अपनी आयु के 16 वर्ष पूरे कर लिए थे जहाँ वे कुरिंजी के जंगलों में एक गोद ली हुई पुत्री के तौर पर पली बढ़ी। उसी दौरान पार्वती जी ने एक भी पुरुष का चेहरा नहीं देखा था। पार्वती जी अति उत्साह के साथ भगवान शिव एवं अन्य देवों की राह तक रही थीं, के तभी नारद मुनि एक मुर्ग का रुप धारण करते हुए कुरिंजी के जंगलों में दाखिल हो गए।

जैसे जैसे दिन बीतता गया, पार्वती जी को यह एहसास होने लगा के भगवान शिव के दिए गए वचन के विपरीत परिस्थिति पलट गई है, और उनका विवाह शिव जी से उस घड़ी सम्पन्न नहीं हो पाएगा। तभी वहीं तारिकासुरन की मुलाकात पार्वती जी से होती है और वह राक्षस पार्वती की अत्यधिक खुबसूरती से मोहित हो जाता है। उस क्षण पार्वती ने राक्षस को उस वरदान और उन परिस्थितियों के बारे में सचेत किया मगर पार्वती की खुबशुरती में लीन राक्षस पर इन चेतावनीयों का एक असर न हुआ और उसने पार्वती की चेतावनी के बावजूद उनके नज़दीक जाने की चेष्टा की। उसी वक्त पार्वती जी ने त्रिशूल से तारिकासुरन पर वार करते हुए राक्षस के शरीर में घोंप दिया। तारिकासुरन एक वरदानी राक्षस था जिसके कारण उसके शरीर से बहे रक्त की हर एक बूँद से एक नया राक्षस उत्पन्न होने लगा था। उसी क्षण पार्वती जी ने रक्तकतेरी का रूप धारण करते हुए राक्षस के अंग का सारा रक्त पी लिया। पार्वती जी के गले में एक माला टंगी होती है जो राक्षसों के मुंड से बनी है और राक्षसों की खाल, पार्वती जी की पोशाक है। मान लिजिए के पार्वती जी विश्वरूप ‘ओम काली’ के अवतार में प्रकट हो गईं हैं।

इस राक्षस के वध के पश्चात पूरी पृथ्वी मानो थरथराने लगी और इसी वजह से पृथ्वी की देवी भूमा देवी को प्रकट होना पड़ा। भूमि देवी का साथ नागाशक्ति ने भी दिया। इन्हीं प्रार्थनाओं में इंद्रलोक के सभी देवों ने भी भाग लिया। यह सभी एकत्रित होकर पार्वती जी की आराधना कर रहे थे। काली जी ने अपनी तीसरी आँख निकाल कर शिव जी को अर्पित कर दी। और इस युद्ध के बाद काली जी का मन भी शांत हो गया।

अनबरासू स्वामीगल को यह दिव्य सूचना से संकेत मिले की यदि काली भगवती की आराधना में कुंभअभिषेक किया जाए जो की चैत्र पूरनमासी के दिन हो और यह निरंतर चलता रहे तो उस क्षेत्र में कभी भी पानी की कमी नहीं होगी।

इसी संदर्भ में कहा जाता है की अनबरासू स्वामीगल ने तमिल चैत्र माह के 22वें पूरनमासी को कुंभअभिषेक माँ काली भगवती को अर्पित किया जिसके स्वरूप माँ काली प्रसन्न हुईं अथवा उस इलाके में जोरदार वर्षा का अनुभव किया गया। इस भारी वर्षा से जल की समस्याओं का समाधान भी हुआ। इसी कारण वश हर महीने अन्नाधनम् किया जाता है।

कहा जाता है अन्नाधनम् करने वाले भक्तों को किसी भी तरह का शारीरिक संकट नहीं घेर सकता एवं सभी शारीरिक कष्ट दूर हो जाते हैं ।